दर्द जब दिल में समा जाता है लज़्ज़त-ए-ज़ीस्त बढ़ा जाता है ख़ून-ए-मासूम से दीवारों पर ग़म का अफ़्साना लिखा जाता है अब तो हर जज़्बा-ए-बेबाक का भी हौसला पस्त हुआ जाता है जाने क्यूँ मुझ को हया आती है वार जब उन का ख़ता जाता है ग़म-ए-अय्याम का हर इक मंज़र शिद्दत-ए-दर्द बढ़ा जाता है रफ़्ता रफ़्ता दिल-ए-दीवाना भी महरम-ए-राज़ हुआ जाता है बे-गुनाहों का भी अब तो 'फ़ारिग़' जीना दुश्वार हुआ जाता है