दर्द मिन्नत-कश-ए-दरमाँ हो ज़रूरी तो नहीं ज़ख़्म मरहम का ही ख़्वाहाँ हो ज़रूरी तो नहीं दिल की गहराई में दाग़ों के चमन खिलते हैं मेरा हर ज़ख़्म नुमायाँ हो ज़रूरी तो नहीं आग है दोनों तरफ़ गरचे बराबर की लगी फिर भी मुझ सा वो परेशाँ हो ज़रूरी तो नहीं हिज्र में तेरे तसव्वुर के मज़े क्या कहने हर कोई दीद का ख़्वाहाँ हो ज़रूरी तो नहीं मुंतज़िर मैं तिरे आने का रहूँगा हर दम झूटा हर इक तिरा पैमाँ हो ज़रूरी तो नहीं दिल से चाहूँ मैं जिसे वो भी तो चाहे मुझ को पूरा ऐसा कभी अरमाँ हो ज़रूरी तो नहीं मौत आती है कभी मादर-ए-मुशफ़िक़ की तरह इस से हर शख़्स गुरेज़ाँ हो ज़रूरी तो नहीं इश्क़ ने नासेह-ए-मुश्फ़िक़ की सुनी ही कब थी अक़्ल ही दिल की निगहबाँ हो ज़रूरी तो नहीं खेते किस वास्ते कश्ती को हो साहिल साहिल न यहाँ ख़तरा-ए-तूफ़ाँ हो ज़रूरी तो नहीं मैं समझता तो हूँ अंजाम-ए-मोहब्बत को 'हबीब' दिल इस अंजाम से लर्ज़ां हो ज़रूरी तो नहीं