दयार-ए-शौक़ में मुझ को ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ क्यों हो जो लुट जाए न राहों में वो मेरा कारवाँ क्यों हो तअ'ल्लुक़ तर्क कर के भी मेरे दिल में निहाँ क्यों हो मुझे आज़ार-ए-जाँ दे कर मेरा रूह-ए-रवाँ क्यों हो इसे चाहूँ उसे चाहूँ जिसे चाहूँ किसी को क्या ज़माना मुझ से क्यों उलझे ज़माना बद-नुमा क्यों हो नज़र चेहरे पे डाली है मगर कुछ सहमी सहमी सी हसीनों का ये रोब-ए-हुस्न उन का पासबाँ क्यों हो वही है कैफ़-ओ-सरमस्ती वही लुत्फ़ और लज़्ज़त है जहाँ तेरा तसव्वुर है मय-ए-रंगीं वहाँ क्यों हो जहाँ शो'लों से फूलों के हसीं चेहरे झुलसते हैं जहाँ काँटे पनपते हैं वो मेरा गुलिस्ताँ क्यों हो लब-ए-गुल पर तुम्हीं ख़ंदाँ मेरे दिल में तुम्हीं रक़्साँ अयाँ हो इस क़दर जब तुम तो आँखों से निहाँ क्यों हो 'हबीब' अब प्यार की वो चाँदनी रातें नहीं बाक़ी तो उस पहली नज़र की याद भी दिल में निहाँ क्यों हो