दर्द पतझड़ के सारे हमारे हुए सब बहारों के मौसम तुम्हारे हुए हसरत-ए-दीद ले के ही जाँ से गए शौक़-ए-दीदार के जो थे मारे हुए रास आई न सौदागरी प्यार की हम को इस काम से बस ख़सारे हुए आ गए फिर से वो तो ज़द-ए-चश्म-ए-बद घर से निकले नज़र जो उतारे हुए साथ उस के जो निकला सर-ए-राह मैं जाने किस किस तरफ़ से इशारे हुए घर तो डूबा था पानी में तुग़्यानी से फिर भी रुस्वा नदी के किनारे हुए कैसे पहचान लें हम किसी को यहाँ लोग हैं रूप पर रूप धारे हुए जीत कर हम से 'आरिज़' बहुत ख़ुश थे वो कितने मसरूर थे हम भी हारे हुए