दर्द था हश्र भी हज़ार उठे By Ghazal << दिल को कोई आज़ार तो होता तुझे ख़बर है तुझे सताता ह... >> दर्द था हश्र भी हज़ार उठे सच न बोलें तो रस्म-ए-दार उठे ऐ ग़म-ए-इश्क़ तुझ से हार गए जान दे कर भी शर्मसार उठे जाने किस दर्द के तअल्लुक़ से रात दुश्मन को हम पुकार उठे अब तो उस ज़ुल्फ़ की घटा छा जाए दिल से कब तक यूँही ग़ुबार उठे Share on: