दरिया ओ कोह ओ दश्त ओ हवा अर्ज़ और समा देखा तो हर मकाँ में वही है रहा समा है कौन सी वो चश्म नहीं जिस में उस का नूर है कौन सा वो दिल कि नहीं जिस में उस की जा क़ुमरी उसी की याद में कू-कू करे है यार बुलबुल उसी के शौक़ में करती है चहचहा मुफ़्लिस कहीं ग़रीब तवंगर कहीं ग़नी आजिज़ कहीं निबल कहीं सुल्ताँ कहीं गदा बहरूप सा बना के हर इक जा वो आन आन किस किस तरह के रूप बदलता है वाह-वा मुल्क-ए-रज़ा में कर के तवक्कुल की जिंस को बैठें हैं सब इसी की दुकानें लगा लगा सब का इसी दुकान से जारी है कारोबार लेता है कोई हुस्न कोई दिल है बेचता देखा जो ख़ूब ग़ौर से हम ने तो याँ 'नज़ीर' बाज़ार-ए-मुस्तफ़ा है ख़रीदार है ख़ुदा