दरिया थे बंद कूज़े में हम हो के रह गए ये क्या कि अपने आप में कम हो के रह गए हर-वक़्त गर्म रहते थे हम रेत की तरह पानी का लम्स मिलते ही नम हो के रह गए चाहा कि इब्तिदा मैं करूँ उस की दास्ताँ लिखने चला तो हाथ क़लम हो के रह गए ख़ामोशियों में गुम हुई दिल की हर एक चोट गुज़रा वो ग़म कि पैकर-ए-ग़म हो के रह गए उलझा है ज़िंदगी के मसाइल से आदमी वीरान सारे दैर-ओ-हरम हो के रह गए 'रहमत' न डूबने से बचाया कोई हमें नज़्ज़ारगी की लहरों में ज़म हो के रह गए