बुझाई है तिरी नज़रों से अक्सर तिश्नगी मैं ने किया है मुद्दतों इस तरह शग़्ल-ए-मय-कशी मैं ने ख़ुशा वो मरहले जिन मरहलों में जैसे घबरा कर मुझे आवाज़ दी तुम ने तुम्हें आवाज़ दी मैं ने मिरी दीवानगी को अहल-ए-ईमाँ कुफ़्र कहते हैं बनाया है बहुत ऊँचा मक़ाम-ए-बंदगी मैं ने अब इस को इंतिहा-ए-ज़ौक़ कहिए या जुनूँ कहिए वो पर्दे में रहे तस्वीर दिल में खींच ली मैं ने हुई हैं लग़्ज़िशें दोनों से हम दोनों ही मुजरिम हैं कि दामान-ए-वफ़ा छोड़ा कभी तुम ने कभी मैं ने मैं उस महफ़िल को ठुकरा कर चला आया हूँ ऐ 'रहमत' जहाँ महसूस की इख़्लास-ओ-उल्फ़त की कमी मैं ने