दरख़्त अब किस का रस्ता देखते हैं मुसाफ़िर मंज़िलों के हो गए हैं ख़ुदा जाने हुई है बात कैसी मुख़ालिफ़ सब के सब अपने हुए हैं वहाँ तो इश्क़ है इक खेल गोया यहाँ तो जान के लाले पड़े हैं कहीं गूँजा है कोई क़हक़हा क्या फ़ज़ाओं में भँवर से पड़ रहे हैं इसी दुनिया में हैं कितनी ही दुनिया सभी के अपने अपने मसअले हैं हमारे ज़ेहन तो मफ़्लूज थे ही हमारे दिल भी पत्थर हो गए हैं दरीचे बंद दरवाज़े मुक़फ़्फ़ल बयाबाँ के मगर रस्ते खुले हैं कहाँ 'फ़ारूक़' रौशन ख़्वाब होंगे हमारी आँखों में तो रतजगे हैं