दरख़्तों पर परिंदे बोलते हैं निकल घर से कि रस्ते बोलते हैं दर-ओ-दीवार से रौनक़ घरों की दिलों का हाल चेहरे बोलते हैं यूँ ही सीनों से कब निकली हैं आहें लगे जब ठेस शीशे बोलते हैं कोई बे-साख़्ता जुमला कभी तो ये सब अल्फ़ाज़ तोते बोलते हैं अभी तो गुल-फ़िशानी हो रही है ये देखें क्या वो आगे बोलते हैं गराँ उस की समाअ'त पर न गुज़रे सो हम कितना सँभल के बोलते हैं तिरा अंदाज़ सब को भा गया है तिरे लहजे में सारे बोलते हैं है ऐसा शहर भी आबाद 'फ़ारूक़' हैं सब ख़ामोश कत्बे बोलते हैं