दर-ओ-दीवार की ज़द से निकलना चाहता हूँ मैं

दर-ओ-दीवार की ज़द से निकलना चाहता हूँ मैं
हवा-ए-ताज़ा तेरे साथ चलना चाहता हूँ मैं

वो कहते हैं कि आज़ादी असीरी के बराबर है
तो यूँ समझो कि ज़ंजीरें बदलना चाहता हूँ मैं

नुमू करने को है मेरा लहू क़ातिल के सीने से
वो चश्मा हूँ कि पत्थर से उबलना चाहता हूँ मैं

बुलंद ओ पस्त दुनिया फ़ैसला करने नहीं देती
कि गिरना चाहता हूँ या सँभलना चाहता हूँ मैं

मोहब्बत में हवस का सा मज़ा मिलना कहाँ मुमकिन
वो सिर्फ़ इक रौशनी है जिस में जलना चाहता हूँ मैं


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