न कारवाँ का हमारे कोई निशान रहा न हम-सफ़र न ही कश्ती न बादबान रहा ज़मीन अपनी तरफ़ खींचती रही मुझ को सवार सर पे सदा मेरे आसमान रहा मुझे ख़बर थी गया था तू ग़ैर से मिलने मैं जान-बूझ के महफ़िल में बे-ज़बान रहा तमाम उम्र मुसल्लत रहा वो दिल पे मिरे तमाम उम्र मैं ज़ालिम का मेज़बान रहा हुआ न क़ैद-ए-ज़मान-ओ-मकाँ से मैं आज़ाद ज़मीं से दूर मगर ज़ेर-ए-आसमान रहा शरीक वो भी था मेरे ख़िलाफ़ साज़िश में कि जिस के साथ सदा मेरा खान-पान रहा न दिल में जलती हुई आग बुझ सकी 'आबिद' न सर पे मेरे कभी कोई साएबान रहा