दर-पेश नहीं नक़्ल-ए-मकानी कई दिन से आई न तबीअ'त में रवानी कई दिन से फिर रेत के दरिया पे कोई प्यासा मुसाफ़िर लिखता है वही एक कहानी कई दिन से दुश्मन का किनारे पे बड़ा सख़्त है पहरा आया न मिरे शहर में पानी कई दिन से सौंपे थे कहाँ धूप के मौसम को घने पेड़ मैं ढूँढ रहा हूँ वो निशानी कई दिन से शायद कोई भटका है वहाँ क़ाफ़िला 'अज़हर' सहरा ने मिरी ख़ाक न छानी कई दिन से