दरवाज़ा-ए-हस्ती से न इम्लाक से निकला पैग़ाम-ए-वफ़ा ख़ुश्बू-ए-इदराक से निकला फिर आज कुरेदी गई वो ख़ाक-ए-नशेमन फिर गौहर-ए-मक़्सूद उसी ख़ाक से निकला हर बार मुझे मेरे मुक़द्दर ने सदा दी जब भी कोई तारा दर-ए-अफ़्लाक से निकला इस बार तो मजनूँ का भरम भी नहीं रक्खा यूँ मेरा जुनूँ पैरहन-ए-चाक से निकला दुनिया की ज़बानों पे रहे ख़ौफ़ के ताले बस हक़ तो मिरे लहजा-ए-बे-बाक से निकला महसूस हुआ और भी हिस्से हैं उसी में इक पुर्ज़ा-ए-दिल जब ख़स-ओ-ख़ाशाक से निकला