दश्त देखा नहीं सहरा नहीं माँगा हम ने जैसा चाहा कभी वैसा नहीं माँगा हम ने चंद यादों के दिए थोड़ी तमन्ना कुछ ख़्वाब ज़िंदगी तुझ से ज़ियादा नहीं माँगा हम ने ख़िलअत-ए-नूर उतारी तो मयस्सर हुई ख़ाक अपनी मिट्टी से सितारा नहीं माँगा हम ने शौक़ वाक़िफ़ है सभी हुस्न के जुग़राफ़ियों से शहर-ए-दीदार का नक़्शा नहीं माँगा हम ने इश्क़ वो मज़हब-ए-अव्वल है कि दिल काफ़ी है यूँ तिलावत को सहीफ़ा नहीं माँगा हम ने