दश्त-ए-ग़ुर्बत में हुई वो आबला-पाई कि बस और फिर काँटों ने की ऐसी मसीहाई कि बस रंग वो लाया मिरा शौक़-ए-जबीं-साई कि बस आस्तान-ए-यार से आख़िर निदा आई कि बस जान-लेवा यूँ हुई रातों की तन्हाई कि बस दास्तान-ए-दर्द-ओ-ग़म वो दिल ने दोहराई कि बस अल्लह अल्लह एहतिमाम-ए-जल्वा-आराई कि बस दीदा-ए-मुश्ताक़ की ऐसी पज़ीराई कि बस मुझ पे अपनों की हुईं ऐसी करम-फ़रमाइयाँ मेरी हालत पर वो ग़ैरों को हँसी आई कि बस कूचा-ए-जानाँ की जानिब जब कभी उट्ठे क़दम दूर तक समझाने मुझ को ज़िंदगी आई कि बस तज़्किरा तर्क-ए-मोहब्बत का कभी जब आ गया नासेह-ए-मुश्फ़िक़ ने वो तक़रीर फ़रमाई कि बस सेहन-ए-गुलशन में किया था ज़िक्र ज़ुल्फ़-ए-यार का पाँव में सुम्बुल ने वो ज़ंजीर पहनाई कि बस वजह कुछ बे-मेहरी-ए-अहल-ए-वतन भी है ज़रूर वर्ना ग़ुर्बत मुझ को क्यों इस दर्जा रास आई कि बस मय-कशों के हाल पर फ़ितरत को जब रहम आ गया मय-कदे पर यक-ब-यक ऐसी घटा छाई कि बस माँगते थे हम ख़िज़ाँ के ख़त्म होने की दुआ उस के जाने पर चमन में वो बहार आई कि बस जब शब-ए-ग़म रहम मर्ग-ए-ना-गहाँ को आ गया जागने वालों को 'तलअ'त' ऐसी नींद आई कि बस