दश्त-ओ-सहरा में कभी ख़ाक उड़ा भी न सकूँ इतना गुमराह न करियो तुझे पा भी न सकूँ मशरब-ए-मूसा पे हसरत का असा थामे हुए ख़िज़्र को ढूँढ रहा हूँ कहीं जा भी न सकूँ अब तू मुझ से न जुदा होने की क़स्में खा ले मैं तो याक़ूब नहीं अश्क बहा भी न सकूँ क्या सितम है मिरी तस्वीर बनाने वाले मैं तुझे अपने तसव्वुर में बसा भी न सकूँ यूँ जला कोई शरर तक न रहे मुझ में वक़ूअ' तूर-ए-उम्मीद का इक तिनका जला भी न सकूँ होश उड़ा जा कि सिवा तेरे न सोचूँ कुछ भी नींद उड़ा जा कि कोई ख़्वाब सजा भी न सकूँ अक़्ल में भी तो समा दिल में समाने वाले याद कुछ रख न सकूँ और भुला भी न सकूँ अपने दामन का हर इक तार उधेड़े हुए मैं अपनी 'शादाब' तबीअत को छुपा भी न सकूँ