दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी और उन सब पे फ़ुज़ूँ बादिया-पैमाई भी ख़्वाब-ए-राहत है कहाँ नींद भी आती नहीं अब बस उचट जाने को आई जो कभी आई भी याद है मुझ को वो बे-फ़िक्री ओ आग़ाज़-ए-शबाब सुख़न-आराई भी थी अंजुमन-आराई भी निगह-ए-शौक़-ओ-तमन्ना की वो दिलकश थी कमंद जिस से हो जाते थे राम आहु-ए-सहराई भी हम सनम-ख़ाना जहाँ करते थे अपना क़ाइम फिर खड़े होते थे वाँ हूर के शैदाई भी अब न वो उम्र न वो लोग न वो लैल ओ नहार बुझ गई तब्अ' कभी जोश पे गर आई भी अब तो शुबहे भी मुझे देव नज़र आते हैं उस ज़माने में परी-ज़ाद थी रुस्वाई भी काम की बात जो कहनी हो वो कह लो 'अकबर' दम में छिन जाएगी ये ताक़त-ए-गोयाई भी