दश्त-ए-जुनूँ में जल्वा-ए-ख़ूबाँ की जुस्तुजू कितनी अजीब है दिल-ए-नादाँ की जुस्तुजू गुज़री थी ज़ुल्फ़-ए-यार से हो कर नसीम-ए-शौक़ अब तक है उस की बू-ए-परेशाँ की जुस्तुजू हैरत-ज़दा हूँ देख के ये इंक़लाब-ए-नौ है शाख़-ए-गुल को आज गुलिस्ताँ की जुस्तुजू लीजे फ़ना का दर्स पतंगों की ख़ाक से आसाँ नहीं है शम-ए-फ़रोज़ाँ की जुस्तुजू 'शबनम' की आँखें रातों को रोती हैं इस लिए होती है उस को मेहर-ए-दरख़्शाँ की जुस्तुजू