दस्तकें सुनते हैं सब दर खोलता कोई नहीं ख़ौफ़ घर मैं इस क़दर है बोलता कोई नहीं इक हुजूम-ए-ताइराँ है बे-सकत बे-हौसला बाल-ओ-पर होते हुए पर तोलता कोई नहीं ऐ निगार-ए-सुब्ह तेरी कार-फ़रमाई की ख़ैर अब रग-ओ-पै में अँधेरे घोलता कोई नहीं ऐ कनार-ए-बहर ये बे-ए'तिनाई किस लिए सीपियाँ मौजूद हैं और रोलता कोई नहीं इस्तक़ामत है क़यामत की सर-ए-दरिया-ए-ग़म हर सफ़ीना मौज पर है डोलता कोई नहीं