दास्ताँ इश्क़ की अंजाम तक आ पहुँची है बात अब हसरत-ए-नाकाम तक आ पहुँची है जाने क्या हाल हो रिंदान-ए-बला-नोश का अब मय-कशी दुर्द-ए-तह-ए-जाम तक आ पहुँची है बात फैली है तिरे ज़ुल्म की शहरों शहरों दास्ताँ तेरी मिरे नाम तक आ पहुँची है जाने किस राह से लाया है मुझे ज़ौक़-ए-तलब जुस्तुजू गर्दिश-ए-अय्याम तक आ पहुँची इक नई सुब्ह का भी ज़िक्र है आने वाला गुफ़्तुगू वक़्त की अब शाम तक आ पहुँची है शिकवा-ए-तिश्ना-लबी ख़ैर हो मयख़ाने की भीड़ अब साक़ी-ए-गुलफ़ाम तक आ पहुँची है सोचते क्या हो उमर आ के क़रीब-ए-मंज़िल बात अब जुरअत-ए-दो-गाम तक आ पहुँची हे