दास्ताँ जो बहुत पुरानी है वो किसी को नहीं सुनानी है मौत से कोई बच नहीं सकता मौत तो हर किसी को आनी है इक दिया फिर हवा में रख के आज अपनी तक़दीर आज़मानी है बाहर आना है डूब कर मुझ को सर से ऊँचा अगरचे पानी है जिस को देखा था मैं ने मक़्तल में शक्ल अनजानी भी है जानी है दिल है अशआ'र पर फ़िदा तेरे तेरी ग़ज़लों में क्या रवानी है बात मानूँगा ये कहा था कल तुम ने 'अहमद' मगर न मानी है