दस्त-ए-साक़ी में छलकता जाम है पीने वाला लर्ज़ा-बर-अंदाम है क्यों रुख़-ए-अनवर है ज़ुल्फ़ों में निहाँ मेरी नज़रों में सहर भी शाम है अपने अंदाज़-ए-करम को देखिए मेरी तौबा पर अबस इल्ज़ाम है चलते चलते जिस जगह ठहरे क़दम मेरी मंज़िल बस इसी का नाम है है कोई महरूम कोई शाद-काम क्या तिरी बख़्शिश इसी का नाम है उन का वा'दा और ईफ़ा की उम्मीद ये तिरा 'शाएक' ख़याल-ए-ख़ाम है