दस्त-ए-तलब दराज़ ज़ियादा न कर सके हम ज़िंदगी से कोई तक़ाज़ा न कर सके चूँकि करम पे हम तिरे शुबह न कर सके बस ऐ ख़ुदा गुनाह से तौबा न कर सके जब ए'तिबार-ए-ज़ौक़-ए-नज़र भी न मिल सका नज़रों को अपनी वक़्फ़-ए-नज़ारा न कर सके तू जब क़रीब-ए-जाँ भी क़रीब-नज़र भी था हम भी ब-ज़ोम-इश्क़ इआदा न कर सके फिर तो तिरा ख़याल भी आया नहीं कभी फिर हम तिरी तलब भी गवारा न कर सके