दौड़े वो मेरे क़त्ल को तलवार खींच कर मैं रह गया इक आह-ए-शरर-बार खींच कर गुस्ताख़ जज़्ब-ए-शौक़ है कितना ग़ज़ब किया लाया है किस को यूँ सर-ए-बाज़ार खींच कर है है ख़बर बहार की सुनते ही मर गया इक आह-ए-सर्द मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार खींच कर वाबस्ता इस से सैकड़ों दिल आशिक़ों के हैं बंद-ए-क़बा न बाँधिए ज़िन्हार खींच कर गर अपने आह-ओ-नाला में तासीर कुछ हुई 'रौनक़' हम उन को लाएँगे सौ बार खींच कर