दौलत-ए-हर्फ़-ओ-बयाँ साथ लिए फिरते हैं हम मोहब्बत का जहाँ साथ लिए फिरते हैं इक तबस्सुम पे न जाना कि तिरे दीवाने ग़म का इक कोह-ए-गिराँ साथ लिए फिरते हैं जिस पे इक साँस की तकरार से बाल आ जाए हम वो शीशे का मकाँ साथ लिए फिरते हैं आँधियाँ उस को बुझाने के लिए हैं बेताब हम जो ये मिशअल-ए-जाँ साथ लिए फिरते हैं दश्त-ए-ग़ुर्बत में बुज़ुर्गों की दुआ है हमराह साया-ए-अब्र-ए-रवाँ साथ लिए फिरते हैं संग-ए-दर से जो तिरे सूरत-ए-सौग़ात मिला रौशनी का वो निशाँ साथ लिए फिरते हैं हम ने देखा तो नहीं सिर्फ़ सुना है कि 'सरोश' आज-कल सर्व-ए-रवाँ साथ लिए फिरते हैं