दयार-ए-हुस्न से गुज़रे तो सर झुका के चले वहाँ तो तीर-ए-नज़र सिर्फ़ दिलरुबा के चले हर इक क़दम पे है ख़तरा-ए-चाक-दामानी कहाँ-कहाँ कोई दामन बचा-बचा के चले शजर पे जिस्म के होने लगी 'अयाँ क़ुदरत उसे कहो कि वो पाँव दबा-दबा के चले थका थका सा बदन ये सड़क नमक रोटी ख़ुदा का शुक्र है झोंके अभी हवा के चले धुआँ-धुआँ सा है हर सम्त राह-ए-मंज़िल में उन्हों ने रौशनी पाई जो दिल लगा के चले न जाने कितने फ़साने गढ़े रक़ीबों ने ज़रा सा 'नज़्र' जो शुरफ़ा भी लड़खड़ा के चले