बज़्म-ए-सहबा में अचानक शोर बरपा हो गया टूट कर ज़ाहिद का चकना-चूर तक़्वा हो गया गर्दिश-ए-दौराँ के हाथों का खिलौना हो गया सोचता हूँ मुझ को क्या होना था मैं क्या हो गया कस्मपुर्सी का ये 'आलम है मशीनी दौर में भीड़ में रहते हुए इंसान तन्हा हो गया वक़्त के मरहम ने दिखलाया तो था अपना असर एक हिचकी में ही सारा खेल उल्टा हो गया रोज़-ए-अव्वल से ज़मीं ने ज़हर उगला इस क़दर पीते-पीते आसमाँ का रंग नीला हो गया आप के क़दमों की ख़ातिर ही मैं लाया था मगर हाथ लगने से मिरा वो फूल मैला हो गया मुद्द'आ ला कर ज़बाँ पर 'नज़्र' फिर रुस्वा न हो आज तक तो ये हुआ जो उस ने चाहा हो गया