दयार-ए-जब्र में भी सर-निगूँ नहीं होती ख़ुलूस हो तो मोहब्बत ज़ुबूँ नहीं होती कभी कभी तो शब-ए-ग़म के सर्द लम्हों में तुम्हारी याद भी वज्ह-ए-सुकूँ नहीं होती मताअ'-ए-ज़र्फ़ ने झुकना हमें सिखाया है कि बे-शराब सुराही निगूँ नहीं होती फ़रेब देता है जिस तरह ज़िंदगी का जमाल तिरी निगाह भी यूँ पुर-फ़ुसूँ नहीं होती फ़ज़ा के जिस्म में लाखों ही ज़ख़्म हैं लेकिन हमारे दर्द की तशरीह यूँ नहीं होती हमारा 'बख़्त' है ज़ब्त-ए-दवाम की तफ़्सीर यहाँ नुमाइश-ए-सोज़-ए-दरूँ नहीं होती