दे के चुभते हुए सवाल हवा ले गई मेरे तीस साल हवा पाँव धरती से उठ रहे हैं मिरे हो सके तो मुझे सँभाल हवा और फूँकेगा बस्तियाँ कितनी आग से तेरा इत्तिसाल हवा तू कि जलते दिए बुझाती है मेरे ज़ख़्मों का इंदिमाल हवा वो तो कहिए कि तेरा जिस्म नहीं तू भी हो जाती पाएमाल हवा लौह-ए-मरक़द पे आब-ए-ज़र से लिखो हो गई है यहाँ निढाल हवा हर क़दम देख-भाल कर 'अंजुम' बुन रही है अनोखे जाल हवा