दीद की तमन्ना में आँख भर के रोए थे हम भी एक चेहरे को याद कर के रोए थे सामने तो लोगों के ग़म छुपा लिए अपने और जब हुए तन्हा हम बिखर के रोए थे हम से इन अँधेरों को किस लिए शिकायत है हम तो ख़ुद चराग़ों की लौ कतर के रोए थे जब तलक थे कश्ती पर ख़ुद को रोक रक्खा था साहिलों पे आते ही हम उतर के रोए थे आइने में रोता वो अक्स भी हमारा था जिस को देख कर अक्सर हम बिफर के रोए थे याद है अभी तक वो एक शाम बचपन की जाने क्या हुआ था सब लोग घर के रोए थे साहिलों पे आती है आज भी सदा उन की डूबने से कुछ पहले जो उभर के रोए थे हर तरफ़ थी ख़ामोशी और ऐसी ख़ामोशी रात अपने साए से हम भी डर के रोए थे तब पता चला हम को ज़ख़्म कितने गहरे हैं दर्द के नशेबों में जब उतर के रोए थे हम ने अपनी आँखों से हादसा वो देखा था पत्थरों की बस्ती में ज़ख़्म सर के रोए थे