देख दरिया है किनारे को सँभाल ये मोहब्बत ये मोहब्बत का ज़वाल इस ज़माने को तरस जाएँगे हम आह ये तिश्नगी-ए-हिज्र-ओ-विसाल मीठी बातों से अदा जागती है नरम आँखों में सँवरते हैं ख़याल ज़ख़्म बिगड़े तो बदन काट के फेंक वर्ना काँटा भी मोहब्बत से निकाल आप की याद भी आ जाती है इतनी महरूम नहीं बज़्म-ए-ख़याल ख़त जो आया है उन्हीं का होगा हाँ ज़रा आज तबीअ'त थी बहाल हाए फिर फ़स्ल-ए-बहार आई 'ख़िज़ाँ' कभी मरना कभी जीना है मुहाल