देखे कोई तअल्लुक़-ए-ख़ातिर के रंग भी उस फ़ित्ना-ख़ू से प्यार भी है और जंग भी दिल ही नहीं है उस के तसव्वुर में शाद-काम इक सरख़ुशी में झूमता है अंग अंग भी कुछ रब्त-ए-ख़ास अस्ल का ज़ाहिर के साथ है ख़ुशबू उड़े तो उड़ता है फूलों का रंग भी ऐसा नहीं कि आठ पहर बे-दिली रहे बजते हैं ग़म-कदे में कभी जल-तरंग भी देखा है आज उस ने मुझे मुड़ के 'आफ़्ताब' इस वाक़िए पे ख़ुश भी हूँ मैं और दंग भी