देखने में ये काँच का घर है रौशनी आदमी के अंदर है कैसा उजड़ा हुआ ये मंज़र है घर के होते भी कोई बे-घर है मिस्ल-ए-यूनुस हूँ बत्न-ए-माही में मेरे चारों तरफ़ समुंदर है उस के क्या क्या सुलूक देखे हैं वक़्त ही बख़्त का सिकंदर है देखने में है वो वरक़ सादा पढ़ने बैठूँ तो एक दफ़्तर है रौशनी हो तो कोई पहचाने कौन रहज़न है कौन रहबर है साँस लेना भी मो'जिज़ा है यहाँ ज़िंदगी आग का समुंदर है रोज़ पढ़ता हूँ भीड़ के चेहरे सब के चेहरे पे एक मंज़र है उस की तस्वीर किस तरह खींचूँ मेरा महबूब मेरे अंदर है अपनी रूदाद मुझ को याद नहीं दिल को लेकिन तमाम अज़्बर है