देखने वाले को बाहर से गुमाँ होता नहीं आग कुछ ऐसे लगाई है धुआँ होता नहीं अपने होने की ख़बर देता है ख़ुश्बू से मुझे फैलता है चार-सू और दरमियाँ होता नहीं रौशनी कर दे तमाशा-गाह से दहशत मिटे कोहर इतना है कि पस-ए-मंज़र अयाँ होता नहीं सोचना चाहो तो ज़ेर-ए-पा मिले हफ़्त-आसमाँ देखना चाहो तो ज़ीने का निशाँ होता नहीं मुंतज़िर रहने से 'हामिद' क़ुफ़्ल को ज़रबें लगा आप ही खुल जाए दर ऐसा यहाँ होता नहीं