दिन को न घर से जाइए लगता है डर मुझे इस पारा-ए-सहाब को सूरज न देख ले उस हाथ की महक से मिरे हाथ शल हुए उस क़ुर्ब से मिले मुझे सदियों के फ़ासले मेरी लवें बुझा न सकीं तेज़ आँधियाँ झोंकों की नरम धार से कोहसार कट गए अपनी सदा को रोक लो क्या इस से फ़ाएदा ढलवान पर भला कभी पत्थर ठहर सके 'हामिद' अजब अदा से किया ख़ून ने सफ़र पलकों को सुर्ख़ कर गए पाँव के आबले