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देखती आँखों ने देखा है शबिस्तानों में जज़्बा मरने का अभी ज़िंदा है परवानों में कितना पुर-हौल है माहौल शब-ए-फ़ुर्क़त का ख़ून भी ख़ुश्क हुआ जाता है शिरयानों में काम आया न गला फाड़ता ऐ शैख़ तिरा नज़र आती हैं वही रौनक़ें मय-ख़ानों में सितम-ए-ताज़ा पे यूँ शुक्र-ए-सितम करता हूँ जैसे इक और इज़ाफ़ा हुआ एहसानों में ऐ 'वफ़ा' अहल-ए-ज़बाँ की है इनायत ये भी कि शुमार आज हमारा है ज़बाँ-दानों में
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