देता है कोई मुझे सदा बाहर आ ऐ मिरे बदन में क़ैद हवा बाहर आ कब से हिला रहा हूँ ज़ंजीर दर-ए-शब तू ही ले कर हाथों में दिया बाहर आ क्यूँ बना हुआ है हदफ़ ज़माने का गुज़रा है क्या तुझ पे सानेहा बाहर आ ताक़ में कब से सजा रहा हूँ याद-ए-चराग़ तू ही तो है इक मेरा आश्ना बाहर आ कब तक तू आसमाँ में छुप के बैठेगा माँग रहा हूँ मैं कब से दुआ बाहर आ तुझे यक़ीन अगर है अपने होने का आ ऐ मेरी जान-ए-बे-नवा बाहर आ संग-ए-मलामत से बच जाए तो जानें 'तूर' इस शहर-ए-मुनाफ़िक़ में ज़रा बाहर आ