बंद कर रौज़न-ए-दर चाहो कि रख़्ना न रहे ताक पर देखे नहीं झाँकने वाले तुम ने मुँह की खाओगे मिरी जान ख़ुदा ख़ैर करे मुँह लगा रक्खे हैं जिस तरह रिज़ाले तुम ने उफ़ करूँ दिल के जलन से तो कलेजा फट जाए बुलबुलो कैसे हज़ारों किए नाले तुम ने दामन-ए-अश्क न छोड़ूँगा मैं ऐ दीदा-ए-तर दिल किया मेरा हसीनों को हवाले तुम ने दस्त-ओ-पा वादी-ए-वहशत की तमन्ना थी तुम्हें आबले तोड़ चुके ख़ार निकाले तुम ने कब शिकस्त ऐसे सनद है कि दग़ा की ऐ ख़ार हाथ से फोड़ लिए पाँव के छाले तुम ने ज़ुल्फ़-ए-ज़ंजीर-ए-जुनूँ समझे भी ऐ हज़रत-ए-दिल क्या पड़ा पेच कि पाँव अपने निकाले तुम ने किस गुलिस्ताँ की चमन-बंदी है ऐ मर्दुम-ए-चश्म नख़्ल-ए-मिज़्गाँ से भरे अश्कों से थाले तुम ने बुलबुलें फूलों से नालाँ हैं कि शबनम के एवज़ क़तरे सीमाब के कानों में हैं डाले तुम ने चश्म-ओ-अबरू से किसी मस्त की बे-शक बह के मय-कशो ताक़ पे क्यों रक्खे हैं प्याले तुम ने कहीं सूरत न बंधी नक़्श-ए-तमन्ना की 'नसीम' सैकड़ों सीम-बदन साँचे में ढाले तुम ने