देता था जो साया वो शजर काट रहा है ख़ुद अपने तहफ़्फ़ुज़ की वो जड़ काट रहा है बे-सम्त उड़ानों से पशीमाँ परिंदा अब अपनी ही मिन्क़ार से पर काट रहा है महबूस हूँ ग़ारों में मगर आज़र-ए-तख़ईल चट्टानों में अश्काल-ए-हुनर काट रहा है इक ज़र्ब-ए-मुसलसल है कि रुकती ही नहीं है हर तार-ए-नफ़स दर्द-ए-जिगर काट रहा है है कौन कमीं-गाह में ये कैसे बताऊँ हर तीर मगर मेरे ही पर काट रहा है उम्मीद उजाले का लिए तेशा हर इक दिल हर रात ब-अंदाज़-ए-सहर काट रहा है करता है फ़ुज़ूँ वहशत-ए-दिल दश्त का मौसम 'बिल्क़ीस' मगर क्या करूँ घर काट रहा है