धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया ख़्वाबों की वो मता-ए-गिराँ किस ने छीन ली क्या जानिए वो नींद का आलम किधर गया तुम से भी जब नशात का इक पल न मिल सका मैं कासा-ए-सवाल लिए दर-ब-दर गया भूले से कल जो आइना देखा तो ज़ेहन में इक मुंहदिम मकान का नक़्शा उतर गया तेज़ आँधियों में पाँव ज़मीं पर न टिक सके आख़िर को मैं ग़ुबार की सूरत बिखर गया गहरा सुकूत रात की तन्हाइयाँ खंडर ऐसे में अपने आप को देखा तो डर गया कहता किसी से क्या कि कहाँ घूमता फिरा सब लोग सो गए तो मैं चुपके से घर गया