धड़कनें बन के जो सीने में रहा करता था क्या अजब शख़्स था जो मुझ में जिया करता था नाख़ुन-ए-वक़्त ने हर नक़्श खुरच डाला है मेरा चेहरा मिरी पहचान हुआ करता था काई होंटों पे हमा-वक़्त जमी रहती थी एक दरिया मिरी आँखों में थमा करता था इक तलातुम था तह-ए-आब सुकूत-ए-दरिया दिल-ए-ख़ामोश में इक शोर रहा करता था मुर्तइश होता था जब ख़ामा-ए-अंगुश्त कभी क्या क्या क़िर्तास-ए-ख़ला पर मैं लिखा करता था ज़ेहन-ओ-दिल इस लिए सरगर्म-ए-अमल रहते थे रहनुमाई मिरी हर वक़्त ख़ुदा करता था आबला-पाइयाँ करती थीं अगर दिल-शिकनी हौसला फिर रह-ए-उम्मीद को वा करता था हो गया नज़्र बिल-आख़िर मिरी हक़-गोई की एक सर जो कभी शानों पे सजा करता था क्या हुआ आज ऐ 'सालिम' वो शुऊर-ए-बालिग़ जो क़लम-ज़द तिरी तहरीर किया करता था