आज शायद ज़िंदगी का फ़ल्सफ़ा समझा हूँ मैं हूँ ज़रूरत ज़िंदगी की इस लिए ज़िंदा हूँ मैं है मिरी तख़्लीक़ में उंसुर बग़ावत का कोई जिस जगह पाबंदियाँ थीं उस जगह पहुँचा हूँ मैं इक अजब सा है तअ'ल्लुक़ उस के मेरे दरमियाँ ऐसा लगता है कि उस की ज़ात का हिस्सा हूँ मैं हैं नुमायाँ जिस के चेहरे पर हक़ीक़त के नुक़ूश तेरे शहर-ए-ख़्वाब में वो आदमी तन्हा हूँ मैं छा गया हूँ ख़ौफ़ बन कर अपने ही आ'साब पर और कभी बे-ख़ौफ़ हो कर ख़ौफ़ से निकला हूँ मैं हैं ज़मीं पर हर तरफ़ मेरे ही क़दमों के निशाँ रोज़-ए-अव्वल से ही 'सालिम' कोई आवारा हूँ मैं