ढल गया जिस्म में आईने में पत्थर में कभी छुप सका मैं न किसी रंग के पैकर में कभी मैं यही नुक़्ता-ए-मौहूम रहूँगा न सदा मैं झलक उठ्ठूँगा आख़िर किसी मंज़र में कभी वो समुंदर की बड़ाई से है मरऊब कि वो तिश्ना-लब बन के रहा है न समुंदर में कभी तुझ पे खुल जाएँगे ख़ुद अपने भी असरार कई तू ज़रा मुझ को भी रख अपने बराबर में कभी देखते हैं दर-ओ-दीवार हरीफ़ाना मुझे इतना बे-बस भी कहाँ होगा कोई घर में कभी अस्ल में कुछ भी न था चंद लकीरों के सिवा हम भी रखते थे यक़ीं हर्फ़-ए-मुक़द्दर में कभी उस से क्या पूछते हम अपने मआनी 'मंज़ूर' फूल खिलते नहीं देखे किसी बंजर में कभी