छोड़ कर मुझ को कहीं फिर उस ने कुछ सोचा न हो मैं ज़रा देखूँ वो अगले मोड़ पर ठहरा न हो मैं भी इक पत्थर लिए था बुज़दिलों की भीड़ में और अब ये डर है उस ने मुझ को पहचाना न हो हम किसी बहरूपिए को जान लें मुश्किल नहीं उस को क्या पहचानिये जिस का कोई चेहरा न हो उस को अल्फ़ाज़-ओ-मआनी का तसादुम खा गया अब वो यूँ चुप है कि जैसे मुद्दतों बोला न हो दन्दनाता यूँ फिरे है शहर की सड़कों पे वो जैसे पूरे शहर में कोई भी आईना न हो लोग कहते हैं अभी तक है वो सरगर्म-ए-सफ़र मुझ को अंदेशा कहीं वो राह में सोया न हो मुझ को ऐ 'मंज़ूर' यूँ महसूस होता है कभी जैसे सब अपने हों जैसे कोई भी अपना न हो