ढला जो दिन तो गया नूर-ए-आफ़्ताब भी साथ शबाब ले गया रानाई-ए-शबाब भी साथ वो साथ था तो शब-ए-ज़िंदगी चराग़ाँ थी जिलौ में रहते थे अंजुम भी माहताब भी साथ हयात क्या है फ़क़त मुस्तआर-ए-लम्हा-ए-शौक़ ये कह के ले गई मौज-ए-हवा हबाब भी साथ इसी में ख़ैर है नज़रें झुकी रहें वर्ना नज़र उठेगी तो जल जाएगा नक़ाब भी साथ हमीं से रौनक़-ए-हस्ती है इस ख़राबे में जो हम मिटे तो मिटेगी ये आब-ओ-ताब भी साथ हयात दर्द की तुग़्यानियों में डूबी है ग़म-ए-हबीब भी है ज़ीस्त के अज़ाब भी साथ ख़ुदा-ए-अर्श-ए-सुख़न से हूँ फ़ैज़याब 'कलीम' कि तूर-ए-शेर से लाया हूँ मैं किताब भी साथ