जागते ही नज़र अख़बार में खो जाती है ज़िंदगी दर्द के अम्बार में खो जाती है ना-ख़ुदा अक़्ल के पतवार उठाता है कि जब कश्ती-ए-दिल मिरी मंजधार में खो जाती है बे-सबब सोचने वाले कभी सोचा तू ने आगही कसरत-ए-अफ़्कार में खो जाती है उड़ते रहते हैं ख़यालात के जुगनू फिर भी बात क्यूँ पर्दा-ए-इज़हार में खो जाती है उस के कामों का है रंगीन ख़ुशामद पे मदार और मेहनत मिरी ईसार में खो जाती है हुर्मत-ए-पर्दा ज़रूरी है 'अता-जी' वर्ना चीज़ जैसी भी हो बाज़ार में खो जाती है