धनक लाला शफ़क़ जुगनू सितारा देखता है वो सदा ख़ुश-रंग रौशन इस्तिआ'रा देखता है वो कभी ख़ुद आप अपना हौसला पायाब होने का कभी हसरत से दरिया का किनारा देखता है वो अजब मुतज़ाद-हासिल कारोबार-ए-शौक़ है उस का इफ़ादा सोचता है तो ख़सारा देखता है वो ज़माना महव-ए-हैरत है कि बुझती राख के अंदर हवा दे दे के आख़िर क्या शरारा देखता है वो अभी तो शाम के साए भी महराए न आँखों में अभी से आख़िर-ए-शब का सितारा देखता है वो शजर जिस से कोई उम्मीद-ए-बर्ग-ओ-बार बर आती उसी पे ज़र्द मौसम का इजारा देखता है वो जहाँ उस ने बना रक्खा है काग़ज़ का मकाँ 'शहज़ाद' उसी जानिब हवाओं का इशारा देखता है वो