धीमी धीमी आँच पे ग़म की दिल का लहू कम जलता है भीगी पलकों के साए में दीदा-ए-पुर-नम जलता है कूचा-ए-जानाँ में शब-ए-ग़म इक शम-ए-वफ़ा भी यूँ न जली मेरे दहान-ए-ज़ख़्म पे जैसे पम्बा-ए-मरहम जलता है गरचे दिल-ए-ज़िंदा है मिरा अब शहर-ए-ख़मोशाँ की तस्वीर एक चराग़-ए-हसरत-ए-पामाल आज भी हर दम जलता है फूल खिले हैं गुलशन में या आग लगी है चार तरफ़ तख़्ता-ए-गुल के शो'लों पर ही गौहर-ए-शबनम जलता है बरबत-ए-हस्ती को इश्क़ अपना ज़ख़मा-ए-ख़ुश-आहंग हुआ 'बर्क़' यहाँ ख़ामोश लबों पर हुस्न के सरगम जलता है