धूप जब तक सर पे थी ज़ेर-ए-क़दम पाए गए डूबते सूरज में कितनी दूर तक साए गए आज भी हर्फ़-ए-तसल्ली है शिकस्त-ए-दिल पे तंज़ कितने जुमले हैं जो हर मौक़ा पे दोहराए गए इस ज़मीन-ए-सख़्त का अब खोदना बेकार है दफ़न थे जो इस ख़राबे में वो सरमाए गए दुश्मनों की तंग-ज़र्फ़ी नापने के वास्ते हम शिकस्तों पर शिकस्तें उम्र भर खाए गए अब दरिंदा खोजियों की दस्तरस में आ गया नहर के साहिल पे पंजों के निशाँ पाए गए आज से मैं अपने हर इक़दाम में आज़ाद हूँ झाँकते थे जो मिरे घर में वो हम-साए गए इन गली-कूचों में बहनों का मुहाफ़िज़ कौन है कस्ब-ए-ज़र की दौड़ में बस्ती से माँ-जाए गए